आलेख- ओमप्रकाश चौधरी
लीजिये बरसात का मौसम फिर हाजिर है | प्रकृति हरियाली की चादर ओढ़े , ,पेड़ों के पत्तों का हरापन लिए आपकी सेवा में हाजिर है | किसान खुश है ,कहीं उसने बोवनी का काम निपटा लिया है और अब उसे इन्तजार है अंकुर फूटने का | कहीं किसान इस इन्तजार में बैठा है कि खेत की नमी कम हो तो वह बोवनी करे | इसके पहले खाद और बीज लाने की उसकी कोशिशें जैसे-तैसे कामयाब हो ही गई | वैसे यह वार्षिक कर्मकांड है जो हर फसल के समय चलता रहता है | नेता जिन्हें न किसान से मतलब है न खेती से उन्हें मतलब है अपनी राजनीति और वोट कबाड़ने की तिकडम से वे दिन रात खाद –बीज को लेकर बयानवीर बने रहते हैं उससे आगे जाकर कोई मदद करते नहीं | रही सरकार उसके अधिकारी और सत्ताधारी वे अपना काम करते रहते हैं या करते हुए दिखने की कोशिश करते हैं | जैसे –तैसे खेती किसानी का यह अध्याय पूरा हो ही जाता है | एक ज़माना था हिंदी फिल्मों का प्रिय विषय बरसात हुआ करता था | किसी न किसी बहाने हीरो हिरोइन को बरसात में भिगो ही देते थे फिल्म बनाने वाले | अपने प्रियतम को बुलाने और यदि वह आ गया है तो उसे रोकने के लिए बरसाती गानों कि भरमार हुआ करती थी फिल्मों में | कभी-कभी हीरो और विलन को भरी बरसात में कीचड़ में लथपथ लड़ते हुए भी दिखा दिया जाता था | कुछ फिल्मों के तो नाम ही बरसात ,बरसात की एक रात हुआ करते थे | फिल्मों में बरसात अब भी होती है पर अब दिखाने का अंदाज अलग है |
बरसात का मौसम बच्चों को सबसे ज्यादा पसंद है पर आज के बच्चे कम ही पानी में भीगते दिखाई देते हैं अब वे दूर खड़े पानी की बरसती धाराओं और फुहारों को देखते रहते हैं | बरसात आई नही कि घर के बड़े – बूढ़े चढ़ जाते हैं छत पर कहीं पानी तो नहीं अटक रहा है यह देखने और अटक रहा है तो उसे रास्ता दिखाने लग जाते हैं | क्योंकि यदि रास्ता नही दिखाया तो वह घर के अंदर भी आ सकता है | मुझे याद है अपने बचपन के वो दिन जब घर की छत खपरेल की हुआ करती थी तो वर्षा के पहले ही कवेलू फेरने वाले को बुलाकर छत ठीक करानी पड़ती थी | मेरे नानाजी के यहाँ छत मिट्टी की हुआ करती थी तो वर्षा के पहले पीली मिट्टी मंगाकर छत पर फैलाई जाती थी उसे ऊस की मिट्टी कहते थे ,वह चिकनी होने के कारण पानी को ऊपर ही रोक लेती थी | अब तो सीमेंट कांक्रीट का जमाना है तब भी छत बारिश में कहीं न कहीं टपक ही जाती है ,जबकि ये पुरानी छतें पानी को टपकने ही नही देती थी | समय-समय की बात है | झोपड़ी में रहने वाले तिरपाल या प्लास्टिक की इंतजाम करके अपनी छत से पानी न टपकने से रोकने के लिए और इनकी मदद करते हैं वे प्लास्टिक के बड़े बड़े बेनर जो आये दिन नेताओं या धार्मिक-सामाजिक कार्यक्रमों के लिए लगते रहते हैं | ये झोपडी में रहने वाले पहली फुर्सत में उन्हें निकाल कर अपनी छत को बरसात से बचाने का इंतजाम कर ही लेते हैं बिलकुल मुफ्त में | बरसात आये और घर दुकान में पानी न भरे , सडकें तालाब न बने , पहाड़ों से मिट्टी न धंसे , रास्ते न रुके और नदी नालों में यात्री ,मोटर सायकल ,कार और बसें न बह जाएँ जाए ऐसा हो ही नही सकता | रोज ऐसी खबरें छपती रहती हैं | बरसात के पहले हर शहर में स्थानीय निकाय नाली ,नाले साफ़ कराने की कहीं वास्तव में और कहीं औपचारिकता पूरी करते हैं | अब जैसे ही घनघोर वर्षा हुई नही की घर –दुकान ,सरकारी कार्यालय यहाँ तक कि अस्पताल में भी पानी भरने की ख़बरें आने लगती हैं और शुरू होता नगर पालिका या नगर निगम को कोसने का सिलसिला | जब पानी ज्यादा ही भर जाता है तो वे भी आ ही जाते हैं अपना काम करने | सड़कों पर भी यही हाल होता है और जैसे तैसे पानी निकलने का रास्ता बना ही देते हैं | यह हाल कमोबेश हमारे देश में हर किसी नगर ,शहर ,महानगर का है | हर कोई सरकार को व्यवस्था को कोसता है उसमें अखबार और संचार के अन्य साधन सबसे आगे होते हैं लेकिन कोई भी अपने गिरेबान में झाँकने को तैयार नही है | सडक के किनारे अच्छी भली गहरी नालियाँ बनी हैं पानी की निकासी के लिए लेकिन उसे दुकान आगे लगाकर या घरों के आगे ओटले बनाकर बंद कर दिया ,जिसे सीधी भाषा में कहें तो अतिक्रमण कर लिया हमने | और जब बरसात हुई तो पानी कहीं तो जाएगा उसे जहाँ जगह मिल जाए और तब उसका सबसे आसान निशाना होता है दुकान या घर | मैंने अपने शहर के मुख्य चौराहे पर देखा है दुकानदार पानी उलीच कर फेंक रहा है पर नाली पर किये अतिक्रमण को हटाकर उसे खोलने को तैयार नही है |
गलती हमारी और दोष व्यवस्था पर , शासन –प्रशासन यदि नालियों को खोलने या अतिक्रमण हटाने की कोशिश करे तो पहले तो खुद बहस करेंगे और यदि काम न बने तो अपना रसूख दिखाकर नेताओं से फोन करायेंगे | अधिकारी दबंग हुआ तो ठीक वर्ना वह चल देगा अपनी राह जबकि उसे मालूम है कि कुछ दिनों बाद यही आदमी चिल्लाएगा मेरे घर या दुकान में पानी भर गया मुझे बचाओ | ये दृश्य हर बरसात में दिखाई देते हैं और हम सब इन खबरों को पढ सुनकर मौसम के बीतने का इन्तजार करते रहते हैं | लेकिन कभी अपनी गलती मानते नहीं क्योंकि अपनी माँ खे डाकन कौन कहे ,यह मालवी कहावत बिलकुल सटीक है ऐसे समय में | नदी नालों को भरी बरसात में पार न करने की सलाह सब देते हैं पर जब अपनी बारी आती है तो अपनी शेखी में या जल्दबाजी में अपनी जान और सम्पत्ति को संकट में डालने से बाज नही आते |
वर्षा का मौसम हरियाली ,सम्पन्नता लाने और मन प्रफुल्लित करने का अवसर होता है इसे अपनी हरकतों से परेशानी और दुःख का मौसम न बनाएं यही अच्छा होगा | कुछ अपने को भी सुधारें कब तक दूसरों को दोष देकर अपने को बचाते रहेंगे | आप चाहे कितना ही दूसरों को गरिया लें परेशानी तो आपको ही भोगनी है नुकसान भी अपना ही होगा तो अपने हिस्से की सावधानी जरुर रखें |