आलेख: लोकेंद्र फतनानी
नीमच। सिन्धु घाटी की सभ्यता विश्व की प्राचीनतम् सभ्यता है। सिन्धु नदी के तट पर ही वेदों की रचना हुई थी। सिन्ध प्रान्त सन्तों, महात्माओं व ऋषियों का पावन स्थल रहा है।
सिंध प्रांत एवं सिंधी समाज के गौरव, कर्मयोगी, त्यागी, तपस्वी, अमर शहीद सूफ़ी संत शिरोमणि श्री कंवरराम साहब का जन्म 13 अप्रैल 1885 को सिंध के सुक्कुर जिले में मीरपुर माथेलो के पास एक छोटे से गाँव 'जरवार' में हुआ था। उनके पिता ताराचंद एक सीधे-सादे ईमानदार व्यक्ति थे, उनकी माँ तीरथबाई एक बहुत ही धर्मपरायण महिला थीं, जो अपने घरेलू कामों के साथ-साथ धार्मिक और आध्यात्मिक कार्यों में भी भाग लेती थीं। जरवार से कुछ मील दूर राहरकी गाँव में 'रहरकी दरबार' में उनकी गहरी आस्था थी। राहरकी दरबार के मुख्य पुजारी संत खोताराम के सिंध में बहुत बड़े अनुयायी थे। उन्होंने लोगों को गरीबों और दलितों की सेवा करने का उपदेश दिया। उन्होंने समाज सेवा के कई कारणों को बढ़ावा दिया। माता तीरथबाई ने राहरकी दरबार से एक ऐसे पुत्र की प्रार्थना की जो संत बने। उनकी प्रार्थना स्वीकार हुई और उनके एक पुत्र का जन्म हुआ। संत खोताराम ने बच्चे का नाम 'कंवर' रखा जिसका अर्थ है 'कमल'। माता तीरथबाई ने कंवर के पालने में होने पर आध्यात्मिकता के गीत गाए। हमारे संत कंवरराम माता तीरथबाई और राहरकी दरबार द्वारा हमारे समुदाय को उपहार हैं।
बाल्यावस्था से ही सन्त कँवरराम जी की रुचि ईश्वर–भक्ति तथा भजन कीर्तन में थी। सन्त कँवरराम जी के मधुर स्वर व सद्गुणों से प्रभावित होकर सिन्ध के महान सन्त व संगीत मर्मज्ञ, सन्त खोताराम साहिब के सुपुत्र समर्थ सद्गुरु सन्त शिरोमणि सतराम दास साहिब ने उन्हें गायन, नृत्य व संगीत विद्या में प्रवीण कर दिया। अपने सद्गुरु की प्रेरणा से सन्त कँवरराम जी ने जीवन पर्यन्त भ्रमण कर सत्संग (भगत) कार्यक्रम द्वारा ईश–वन्दना, सत्य, अहिंसा, विश्व बंधुत्व व साम्प्रदायिक सौहार्द का सन्देश जन–जन तक पहुँचाया। यद्यपि सन्त सतगुरू कँवरराम जी अपने सतगुरुदेव साँईं सतरामदास जी के विशेष कृपापात्र शिष्य थे किन्तु उनके परम् धाम सिधारने के उपरान्त सन्त कँवरराम जी गुरु गद्दी पर आसीन न होकर 40 वर्षों तक एक सेवक की भांति ही गुरु दरबार की सेवा करते रहे। आप मानवता के मसीहा थे। आपने ऊँच–नीच व अमीर–गरीब के भेद को मिटाकर समता का भाव जन–जन के हृदय में स्थापित करके लोगों के नैतिक आचरण को बल प्रदान किया। आपके परोपकारी एवं आध्यात्मिक जीवन ने लोगों के हृदय में जनकल्याण, सर्वधर्म समभाव एवं मानवीय आदर्शों के अंकुर प्रस्फुटित कर समाज को नई दिशा प्रदान की।
सन्त कँवरराम साहिब त्याग एवं तपस्या की प्रतिमूर्ति, जीवन के मर्म को जानने वाले ऋषि, दया के सागर, दीन दुखियों, अबलाओं, यतीमों व अपाहिजों के मसीहा थे। उनकी आवाज में दर्द था, एक कशिश थी जिसको सुनकर सत्संग में उपस्थित हजारों श्रोता मंत्रमुग्ध हो जाते थे तथा एकाग्रचित होकर सत्संग में लीन रहते थे उनके भजनों से लोगों को विश्रान्ति मिलती थी। सन्त कँवरराम साहिब के गीतों व उनकी रचनाओं में ईश्वर अल्लाह का समान रूप से समावेश होता था। इसलिए जहां हिन्दू उनके सत्संग में जाने के लिए आतुर रहते थे वहीं मुसलमान उनके गीतों व कलामों के दीवाने थे तथा उनके सत्संग में बढ़–चढ़कर हिस्सा लेते थे। वे सिन्ध के तानसेन कहे जाते थे।
सभी उम्र, लिंग और सामाजिक वर्गों के लोग, बूढ़े से लेकर युवा, अमीर से लेकर गरीब, संत कंवरराम साहिब की मधुर और सुरीली आवाज की ओर आकर्षित होते थे, जिसे अक्सर बुलबुल की आवाज के समान माना जाता है। उनकी उपचारात्मक आवाज को सुनकर कई लोग धन्य महसूस करते थे, जिसके बारे में कहा जाता था कि उसमें बहुत शक्ति और दिव्यता है।
कथा के अनुसार संत कंवरराम की आवाज़ इतनी चमत्कारी थी कि एक बार, बिना यह बताए कि एक बच्चा पहले ही मर चुका है, उन्हें शिशु को लोरी सुनाने के लिए कहा गया। ऐसा कहा जाता है कि जैसे ही उन्होंने गाना शुरू किया, बच्चा फिर से जीवित हो गया, जो संत साईं कंवरराम साहिब की अपार महानता को प्रमाणित करता है। भजन गाते समय धन और आभूषणों का बहुत-सा दान मिलने के बावजूद संत साईं कंवर राम साहिब ने कभी भी अपने या अपने परिवार के लिए एक भी पैसा नहीं रखा। इसके बजाय, उन्होंने निस्वार्थ भाव से दान को गरीबों और ज़रूरतमंदों में बाँट दिया। संत साईं कंवर राम साहिब का मानना था कि उनकी मार्मिक आवाज़ ईश्वर की ओर से एक उपहार है और उनके भजनों से प्राप्त होने वाले किसी भी पैसे का उपयोग ईश्वर के बच्चों की भलाई के लिए किया जाना चाहिए।
जब संत साईं कंवरराम साहिब राग सारंग गाते थे, जो बारिश से जुड़ा हुआ है, तो बादल घिर आते थे और भारी बारिश होती थी। इसके अलावा, कई लोग जो गंभीर बीमारियों से पीड़ित थे, उनके दिव्य आशीर्वाद से ठीक हो गए थे। संत साईं कंवरराम साहिब लोगों की शुद्ध और सच्ची इच्छाओं की पूर्ति के लिए प्रार्थना करने हेतु अरदास साहिब और पलव साहिब गाते थे।
सन्त कँवरराम साहिब के गीतों व कलामों से सिन्ध के गाँव–गाँव में प्रज्वलित साम्प्रदायिक सदभाव की ज्योति फिरकापरस्त ताकतों को नागवार लग रही थी और वे इस ज्योत को बुझाने की साजिश में लग गए और इतिहास का वह काला दिन, 1नवम्बर 1939 आया, जब ‘‘रुक’’ जंक्शन पर दो बंदूक धारी कट्टरपंथियों ने सन्त कँवरराम साहिब से अपने मक्सद में कामयाब होने की दुआ मांगी। त्रिकालदर्शी सन्त कँवरराम साहिब ने उन्हें आर्शीवाद दिया। रेलगाड़ी चलने पर उन बंदूकधारियों ने सहज और शान्त भाव से बैठे सन्त को गोली का निशाना बनाया और मानवता का मसीहा, अध्यात्म की ज्योत को प्रखर करने वाले युग पुरुष, साम्प्रदायिक सदभाव के एक मजबूत स्तम्भ, सिन्ध के महान सपूत परम् धाम राम’’ कहकर परम् धाम सिधार गए।