मॉडर्न इस जमाने में ,
पुरानी सी दिखने वाली ।
अंग्रेजी पन्नों के बीच
हिंदी पढ़ने लिखने वाली ।
पास्ता, नूडल्स के चटकारो में
दाल- भात चढ़ाती हूं ।
अपनेपन की मंदी में भी
रिश्ते रोज बढ़ाती हूं।
एसी में दम घुटता है
हवा नीम की भाती हैं।
घर की मेराज पर मेरे
सजते दीपक बाती हैं।
ये जग सारा है गुलाब सा
और पलाश का फूल हूं मैं ।
शीशमहल है चारों ओर
आंगन वाली धूल हूं मैं।
महके - महके बागान को पहुंचे
खिलते खलिहानों की खुशबू।
खिड़की के गुडलक से सुंदर
दरवाजे के मिर्ची- नींबू
कुआं रस्सी और पनघट
मिट्टी के मटके का पानी।
वेब सीरीज की चर्चाओं में
कहती हूं नानी की कहानी।
चकाचौध रातों के बीच
अब भी भाता है चंदा।
पक्की नहरों को झुठलाती
मैं स्वतंत्र अलकनंदा।
वाटरप्रुफ जमाना सारा
मुझमें बारिश धूप है खिलते।
जेब में चॉकलेट वेपर्स नहीं
कच्ची इमली बेर ही मिलते।
आभासी दुनिया वाले ये
क्या मुझ पर उपकार करेंगे
भागती दुनियां में मैं ठहरी ,
क्या मुझको स्वीकार करेंगे
- दीपशिखा रावल, कवियित्री